आदिवासी व्यथा

 


गोबर से लीपा आंगन ,
मिटटी की चिकनी दीवार ,
दीवारों पर चित्रकारी.
पत्थर का कुआँ.
कुँए का ठंडा पानी ,
बरगद के नीचे चौपाल
उधम मचाते छौने,
वातावरण में महुआ की गंध
मांदर की थाप
निश्छल मुस्कराहट
एक सुदूर आदिवासी गांव …
—-
एक फैक्ट्री का शिलान्यास,
या एक डैम का
या एक खदान का.
जमीन के बदले पैसे,
पैसे से खरीदी जाती शराब,
जब तक फैक्ट्री बनी
या डैम बना या
खदान तैयार हुई,
शराब बहती रही,
गांव की गलियों में,
जवानी घुलती रही
बोतल के अंदर.
——
बाहर से आये लोग,
फैक्ट्री या डैम या खदान
हो गयी तैयार,
पैसे खत्म हो गए इधर,
जमीन भी खत्म हो गयी.
—-
फैक्ट्री से निकलता है
धुआं, काला धुआं,
गांव के लोगों के भविष्य की तरह
काला, अँधेरा घुप्प.
अब कुँए का पानी,
पीने के लायक नहीं,
दीवारों पर चित्रकारी नहीं,
नारे लिखे है, नक्सली नारे .
कुछ नेतानुमा लोग
भडकाते हैं उनको.
कंपनी से पाएंगे कूछ माल,
छोड़ जायेंगे फिर उन्हें
घुटने के लिए,
घुट घुट के मरने के लिए.
अब मांदर चुपचाप है,
दीवार पे टंगा, खूंटी के सहारे
करता है चीत्कार,
अपने मालिक की असामयिक मौत पर.
——–
यह गांव है बस्तर में,
छत्तीसगढ़ में या झारखण्ड में,
क्या फर्क पड़ता है?
हर जगह एक सी कथा है,
आदिवासियों की एक सी व्यथा है.

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